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व्यंग्य: कुत्ते की स्वतंत्रता

सवेरे पाँच बजे मेरे सड़क पर घूमने का समय होता है। यों तो मैं बहुत ही ताक़तवर हूँ, बल का देवता हूँ, परंतु मेरी मालकिन मुझे सड़क पर अकेले निकलने नहीं देतीं। मेरी मालकिन? उनके बारे में बताता हूँ। सुबह चार बजे, जब बाहर आसमान में अब भी अनगिनत तारे टिमटिमा रहे होते हैं, पीला सा वह चाँद काली धरती पर ना जाने क्या टटोल रहा होता है और खाली सड़कों पर सहरते हुए सूखे पत्तों का साम्राज्य होता है, मेरी मालकिन के सिर के पास रखा एक यंत्र बोल पड़ता है और मैं अपनी पूछ हिलाता हुआ खड़ा हो जाता हूँ। 

इस घर में एक वही हैं बुद्धिमान, मातृत्व की प्रतिमा। जाड़ों की बेचैन कर देने वाली ठंड में भी वह सुबह तडके जाती हैं मुझे घुमाने। गले में मेरे एक मेंहगा सा पट्‌टा होता है और उनके हाथ में उस पट्‌टे से जुड़ी एक जंजीर। आप को एक बात बताता हूँ। यह सही में तो बस कहने वाली बात है। सड़कों पर अगर किसी का हुक्म चलता है तो मेरा। उनके हाथ में अगर मेरी कमान होती भी है तो मुझे आता है उनको मनाना। में बलशाली हूँ। मैं जिधर दौड़ लगाता हूँ, वे उधर चल देती हैं। सड़कें खाली हो जाती हैं मुझे देख। लोग अपने घरों के भीतर दुबक जाते हैं। मैं जिधर जाता हूँ, मालकिन ज़ंजीर लिए मेरे पीछे आती जाती हैं। उस दोमुही तलवार जैसी लाठी को मैंने उन्हें कभी अपने साथ लाने न दिया। वे जब लाठी लातीं तो मैं पागलों की तरह उछलता-कूदता या बरगद की जड़ों के समान अपने पंजे धरती में धँसा कर तटस्त हो जाता - और वह बोलतीं की इससे अच्छा तो वे खाली हाथ थीं। मैं आज़ाद हूँ।

एक तो मैं, दूसरी मेरी मालकिन। अन्य घरवालों को भी मैं अपने इशारों पर ही नचाता हूँ। एक और भी है इस घर में लेकिन मैं काफी पसंद नहीं करता हूँ उसे। वह भी मेरी ही तरह बलशाली है। वह मालकिन का बेटा है। वह मुझ पर कई बार गुर्राया भी है। मुझे याद है की बचपन में वह मेरी पिटाई भी करता था परंतु अब सब कुछ सही है। सुबह को वह मुझे स्वादिष्ट भोजन परोसता है। शाम को वह मुझे और भी स्वादिष्ट भोजन देता है। कई बार तो मेरे माँगने पर वह मुझे अपने हिस्से में से भी भोजन दे देता है। जब मुझे पसंद नहीं आता तो मैं नकार भी देता हूँ। मेरी मर्जी है। में आज़ाद हूं।

बात पर लौटते हैं। सड़क पर घूमने का समय सुबह पाँच बजे। मैं बाहर आता हूँ। वहीं कुछ दूरी पर एक नई समस्या ने जन्म लिया है। जाने कहाँ से अचानक दो अन्य कुत्ते उस सड़क पर आ गए हैं। एक का तो गठीला तन है, मांसल भुजाएं हैं। काला सा शरीर उसका उसके बिंब को और भी प्रखर करता है। उसकी विकराल सी ध्वनि बीहड़ सड़कों में गरजती है।  मालकिन के साथ जब मैं वहाँ पहुंचता हूँ तो वह मेरे सामने आ खड़ा होता है। मुझ पर चीखने लगता है! उसका चमचा भी उसके साये में प्रबल हो उठता है, उसी की भाँती गर्जन करता है। मैं? मालकिन मुझे उन से लड़ने नहीं देतीं वरना क्या मजाल है इन छिछोरों की? कल मैंने मन बना लिया था कि आज तो जंग हो के रहेगी। हम कुत्तों में घुसपैठ को सहा नहीं जाता। चुप हो कर बैठ जाना हमारे सिद्धांतों में कहीं नहीं है। गर्मी की लू की भांति शिशिर की शीत पवन में, चंचल सन्नाटों के बीच कल जब मैं मालकिन के साथ वहाँ पहुंचा तो मैंने खुद उन दोनों को ललकारा। अभी भी वह मर्दाना ध्वनि महाभारत के युद्ध के पूर्व शंखनाद सी मेरे भीतर समाई हुई है। काली-काली सड़कों में से दो प्रेतों से वह जागे और मेरी और दोड़े। जंजीर में तनाव बना पर मैं आगे की और लपका और जा भिड़ा उन राक्षसों से। फिर क्या हुआ? कुछ समझ सा नहीं आया। पूंछ पर कुछ महसूस हुआ। बाजुओं पर कुछ जकड़ा हुआ सा था। अचानक असमंजस्य और कोलाहल के मध्य मालकिन ने मुझे पीछे खींचा। मेरी जीह्वा को अभी तक रक्त का प्रमाण नहीं हुआ था। मिशन पूर्ण नहीं हुआ था। वह मुझे घसीटते हुए घर ले गईं।

नुकसान हुआ था। चलने में कुछ दिक्कत सी भी थी। किंतु यह अभी भी उतना ही अस्वीकार्य था की मेरी भूमि पर कोई अन्य चालन करे।  सीधा युद्ध सही रणनीति नहीं थी। वह दो थे। में एक। वह एक भी अब आधा सा रह गया था। कुछ दिन मैंने दूर से ही उनके ताने सुने। उनसे लड़ने लायक अभी नहीं हुआ था। मालकिन की भी तबियत कुछ ठीक सी नहीं थी। एक बार तो वह दोनों मालकिन से भी न डरे और मुझे मेरी जान पर आँच महसूस होने लगी। किंतु ऐसा कुछ हुआ नहीं। अगले दिन से एक बदलाव ज़ुरूर हुआ। सुबह चार बजे मालकिन उठीं तो परंतु मेरे साथ घूमने के लिए उनका बेटा आया। जंज़ीर में अब एक अलग तनाव था। चारों ओर घूमने की स्वतंत्रता कुछ कम थी। मैंने मन बना लिया कि यह नहीं चलेगा। आज़ादी सर्वप्रथम है। 

जरा दूर चलने पर वह दोनों दिखाई दिए। मेरी पहली झलक पर ही सड़क पर अपनी सेज से मेरी तरफ भागे आए। मैंने अपना हौसला बटोरा और मन ही मन अपने आप को ढांढ़स दिया। शरीर में गर्मी सी आ गई। अपमान की रातें खत्म तो होती ही हैं - चाहें वह जैसे ही हों। मेंने उनकी आंखें देखीं और गुर्राया। में जानता था कि इसका अंत मेरे लिए अच्छा नहीं होगा। मैंने ललकार लगाई। अंततः वह मुझ तक पहुँच ही गए। उस रणभूमि में, खामोशी के लाल सागर में, चारों तरफ से घेरी गुमसुम स्थिरता में अचानक उनसे पहले मेरे सामने मालकिन का लड़का आ खड़ा हुआ। उसके हाथ में पत्थर था। उसने अपना हाथ अपनी आखों तक उठाया, निशाना जमाया और पत्थर फेंका। कुछ ही क्षणों में उनमें से किसी की चीखने की आवाज़ आई। सामने से पैर हटे तो देखा की दोनों भाग खड़े हुए हैं। मैं कौतुहल से चीखा। और दहाड़ा! और दहाड़ा।

अगर सुरक्षा की कीमत थोड़ी सी आज़ादी थी, तो मुझे यह मंज़ूर था! यह तो नियति है! यही तो सांसारिक समझौता है! सरकार आखिर कौन है हमें निर्देश देने वाली? कौन है वह हमें जेल में डालने वाली? हमें सही-गलत बताने वाली? हमने ही तो उसे बनाया हे हमारी रक्षा के लिए, हमारे हित के लिए। उस क्षण वह लड़का ही मेरी सरकार बन गया और में उसका भक्त। आज तक जो जंज़ीर नाममात्र थी, मैंने उसे लौह रूप दे दिया। मैं पूँछ हिलाता हुआ घर से निकलता और जा कर उन दोनों को ललकारता। मेरे मालिक को दिख वे दूर ही रहते। मैं हँसता हुआ वापस आ जाता।

ऐसा ज़्यादा दिन चल ना सका। उन दोनों ने हिम्मत जुटाई और चीखने लगे आगे आ कर। मैंने भी अपना बोल-बच्चन शुरू किया। मालिक ने मुझे पीछे खींचा। आस-पास कोई पत्थर न था! अजीब परिस्थिति थी! एक बार फिर मुझे वापस जाना पड़ा। हार का मुँह देखना पडा।

अगले दिन फिर बाहर निकलने का समय आया। मालिक बाहर आए। हाथ में लाठी थी। बोले - " आज सालों पर लठ्ठ की बरसात होगी!" कहा तो उन्होंने इतना ही था पर उस समय मेरे दिल में उनका गौरवगान शुरू हो चुका था। वह मेरे क्षेत्र की रक्षा के लिए लड़ने जा रहे थे। वह एक प्रबल देशभक्त थे। दुश्मन पर कूच होगी! में भी तैयार था। हम बाहर निकले। उस समय मुझे पछतावा हुआ कि क्यों मैंने मालकिन को कभी लाठी ना ले जाने दी? क्या वे मुझे मारतीं? ऐसा क्यों ही करतीं वे? हम आगे बढ़ चले।

वहाँ पहुँचे तो हमें देखते ही साथ दोनों पिशाच खड़े हो उठे परंतु मालिक के हाथ में लाठी देख उनकी हठ कुछ कमजोर सी पड़ गई। फिर भी आगे बढ़े लेकिन जब मालिक ने लाठी हवा में लहराई तो चहरे पर झुर्रीईयाँ सी आ गईं। दाँत अब भी होठों से बाहर ही झाँक रहे थे। आँखों से अभी भी कमीनापन टपक रहा था। यह देख मुझसे रहा न गया। मालिक को लगा कि उनकी जय हुई है। पर मुझे तो कई हफ्तों की पराजय का उत्तर उन्हें देना था। बार-बार हुए मेरे अपमान का हिसाब चाहिए था मुझे। मैं उनकी ओर लपका। मालिक ने मुझे रोकने की कोशिश की। मेरा क्रोध ज्वालामुखी की भाँति फड़क रहा था। मैं नहीं रुका। फिर कूदा। फिर लपका। चीखा। धिक्कारा। तभी मेरी पीठ से कुछ टकराया और मेरी चीख निकल पड़ी। कुछ समझ न आया। पीछे मुड़ कर देखा तो मालिक मुझे घृणा भरी नजरों से देख रहे थे। हाथों में डंडा था और मुझ पर फिर से बरसने को उतारू भी था। 

मेरी बुद्धि में कुछ न आया। ये क्या हुआ था? दुश्मन साक्षात था। सामने खड़ा था। मेरे क्षेत्र में वे कुत्ते अभी भी थे! अभी भी मुझे देख कर नज़रों से गालियां दे रहे थे। मालिक मुझे पीछे खींचने लगे। मैं फिर आगे बढ़ा। फिर डंडा मेरे ऊपर गिरा। यह घोर निरादर था! क्या अब वह ही बताएँगे की मेरा दुश्मन कौन है, और कब तक है? वह है कौन? मैं मेरे घर का एक अंग हूँ। समानाधिकार मेरा भी है। अपने निर्णय लेने का अधिकारी मैं भी हूँ। वह है कौन?

वह शस्त्रधारक है और उसे शस्त्र पकड़ाया भी किसने था? ताकतवर को मैंने और ताकतवर बनने दिया था। उसका जयजयगान किया था मैने! मैंने अपने शक के बांध गिरा दिए थे। मैं चुपचाप चलने लगा। अगर सड़क से थोड़ा दांए जाता तो डंडा बरसता। बांए जाता तो! सीधी रेखा पर चला। पीछे मेरे क्षेत्र पर फिर से कब्जा हो चुका था शायद। जो दर्द की तीव्रता थी वह मुझे याद दिला रही थी कि स्वतंत्रता अब भी सबसे ऊपर है। अंधश्रद्धा और दुश्मनी की आग में मैंने उसे खो दिया था। कितना मुश्किल होगा अब उस खोई स्वतंत्रता को पाना! 

Comments

  1. और फिर मानवता कुत्तो को गाली का नाम दे चुकी है साहिब 🙏 आपकी कलम ने बेजुबान की जुबान लिखी है |

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